भीड़ बनने, बनाने और उसे बचाने के अपराधी..
चेन्नई और बेंगलुरू से आती तस्वीरों में चंद लोग किसी को खदेड़े जा रहे हैं, किसी को मार रहे हैं, किसी की गाड़ी पलटकर जला रहे हैं, बस डिपो में घुसकर बसों को जला रहे हैं. मारपीट करते इन लोगों को बेबस होकर देखता रहा. इन चंद लोगों के लिए सैंकड़ों बटालियनें तैनात हैं. पुलिस लाठी लेकर दौड़ने की औपचारिकता पूरी कर रही है. कावेरी विवाद कोई नया नहीं है कि अचानक गुस्सा फूटा हो और लोगों को पता न हो कि उस गुस्से को कैसे ज़ाहिर करें. बसों ने किसी राज्य का क्या बिगाड़ा है...? तस्वीरों से लग रहा है कि राज्य की कांग्रेस सरकार जानबूझकर प्रोत्साहन दे रही है, ताकि हिंसा की भाषा से कावेरी जल विवाद की समस्या को राजनीतिक रूप से गंभीर बनाया जा सके.
कर्नाटक ही नहीं, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश किसी भी राज्य का उदाहरण ले लीजिए. हरियाणा का जाट आरक्षण आंदोलन, गुजरात का पटेल आंदोलन, गुर्जर आंदोलन की हिंसा का भयावह दौर याद कर लीजिए. 2012 में रणबीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या पर पटना में क्या तांडव हुआ था, उसे भी याद कर लीजिए. बाबरी मस्जिद पर वह भीड़ ही तो थी, जो चढ़ गई तोड़ने के लिए और हमेशा के लिए इतिहास में छिप गई. मुंबई में प्रवासी मज़दूरों को मारने वाली भीड़ दस-बारह लोगों की ही होती है, मगर इनके कारण दो-दो राज्यों में आग लग जाती है. कहीं रास्ता रोककर कार तोड़ने से लेकर बस जलाने की अनगिनत घटनाएं होती ही रहती हैं.
भारत में भीड़ कई प्रकार की बनती है. चंद लोगों का गुट किसी ट्रक को रोकर गोरक्षा के नाम पर वसूली करने से लेकर आग तक लगा सकता है. पेशाब से लेकर गोबर तक खिला सकता है. बंगाल से ही ख़बर आई कि लोगों ने थाने को घेर लिया. कहीं लोग थाने को जला देते हैं तो कई बार भीड़ पुलिस के अफसर को ही घेरकर मार देती है. यूपी में पुलिस अफसर ज़िया उल हक़ को ऐसी ही एक भीड़ ने मार दिया था. चंद लोगों की भीड़ मोहल्ले में घुसकर किससे शादी करें, इसका फैसला कर सकती है. आजकल हिन्दू भीड़ होने लगी है, मुस्लिम भीड़ होने लगी है. हिंसा इस भीड़ का एकमात्र हथियार होता है.
भारत में भीड़ अपने आप में सरकार है. अचानक बन जाती है और सरकार और शहर को नियंत्रण में ले लेती है. हिंसक भीड़ के मामले में कांग्रेस, बीजेपी, जेडीयू या सपा की सरकार एक ही होती है. भीड़ पर किसी कानून का ज़ोर नही चलता. वीडियो में लोग तोड़फोड़ कर रहे होते हैं, लेकिन कभी कोई कार्रवाई नहीं होती. मुझे नहीं पता, बेंगलुरू में तोड़फोड़ करने वाले लोगों को कावेरी विवाद की बारीकियों का कितना ज्ञान है या हरियाणा में जाट आरक्षण के दौरान हिंसा करने वालों को आरक्षण के कानून के बारे में ज़्यादा पता था या किस दुकान को लूटना है, उसके बारे में ज्यादा पता था.
हम हिंसक भीड़ के प्रति लगातार सहनशील होते चले जा रहे हैं. चुप रहकर उस भीड़ में शामिल होते जाते रहे हैं. हर दूसरे दिन ऐसी जानलेवा भीड़ अवतरित होती है और गायब हो जाती है. लोकतंत्र में बड़ी से बड़ी संख्या में प्रदर्शन करना चाहिए, लेकिन अगर इस तरह की हिंसक भीड़ के प्रति हम सहनशील होते रहे तो एक दिन अपने लोकतांत्रिक मसलों को गुंडों के हवाले कर देंगे.
सरकारों को हिंसक भीड़ से निपटने का नया आदर्श कायम करना होगा. पुलिस को भी भीड़ को हिंसा से उकसाने और हिंसा से पहले लाठीचार्ज से बचना चाहिए. हम पुलिस की हिंसा के प्रति भी सहज होते जा रहे हैं. यह भीड़ एक दिन हमारी व्यक्तिगत ताकत की संभावनाओं को समाप्त कर देती है. बेहतर लोकतंत्र वह होता है, जहां एक व्यक्ति सौ लोगों की भीड़ के बराबर होता है. उसके सामने खड़ा होकर अपनी बात कहता है. दोनों एक दूसरे की बात सुनते हैं और कहते हैं. हम मुद्दों के नाम पर गुंडों को अपने लोकतंत्र पर हावी होने दे रहे हैं. दंगाइयों की भीड़ और किसी मुद्दे को लेकर उतरी हुई भीड़ में कोई फर्क नहीं रह गया है.
कई बार सोचता हूं, अलग-अलग भीड़ में अलग-अलग लोग जाते हैं या एक ही आदमी हर तरह की हिंसक भीड़ में जाता है...? इन सारे लोगों को क्या अपराध बोध होता होगा...? हर राजनीतिक दल कब भीड़ में बदल जाए, पता नहीं. ऐसा लगता है, हमने अपनी आज़ादी की लड़ाई से कुछ नहीं सीखा. अहिंसक प्रदर्शन करने की परंपरा का विकास हमारे राजनीतिक दलों ने भी नहीं किया है. सबका रिकॉर्ड ख़राब है. क्या कभी किसी भीड़ की हिंसा का नतीजा निकला है...? सरकारों को भीड़ से लाभ होता है, इसलिए वह एक भीड़ को बचाती है तो एक भीड़ को डराती है. हर किसी के पास अपनी एक भीड़ है. भीड़ हिंसा न करे, इसका कोई उपाय किसी के पास नहीं है. हम सब भीड़ बनने, बनाने और उसे बचाने के अपराधी हैं.
कर्नाटक ही नहीं, गुजरात, बिहार, उत्तर प्रदेश किसी भी राज्य का उदाहरण ले लीजिए. हरियाणा का जाट आरक्षण आंदोलन, गुजरात का पटेल आंदोलन, गुर्जर आंदोलन की हिंसा का भयावह दौर याद कर लीजिए. 2012 में रणबीर सेना के प्रमुख ब्रह्मेश्वर मुखिया की हत्या पर पटना में क्या तांडव हुआ था, उसे भी याद कर लीजिए. बाबरी मस्जिद पर वह भीड़ ही तो थी, जो चढ़ गई तोड़ने के लिए और हमेशा के लिए इतिहास में छिप गई. मुंबई में प्रवासी मज़दूरों को मारने वाली भीड़ दस-बारह लोगों की ही होती है, मगर इनके कारण दो-दो राज्यों में आग लग जाती है. कहीं रास्ता रोककर कार तोड़ने से लेकर बस जलाने की अनगिनत घटनाएं होती ही रहती हैं.
भारत में भीड़ कई प्रकार की बनती है. चंद लोगों का गुट किसी ट्रक को रोकर गोरक्षा के नाम पर वसूली करने से लेकर आग तक लगा सकता है. पेशाब से लेकर गोबर तक खिला सकता है. बंगाल से ही ख़बर आई कि लोगों ने थाने को घेर लिया. कहीं लोग थाने को जला देते हैं तो कई बार भीड़ पुलिस के अफसर को ही घेरकर मार देती है. यूपी में पुलिस अफसर ज़िया उल हक़ को ऐसी ही एक भीड़ ने मार दिया था. चंद लोगों की भीड़ मोहल्ले में घुसकर किससे शादी करें, इसका फैसला कर सकती है. आजकल हिन्दू भीड़ होने लगी है, मुस्लिम भीड़ होने लगी है. हिंसा इस भीड़ का एकमात्र हथियार होता है.
भारत में भीड़ अपने आप में सरकार है. अचानक बन जाती है और सरकार और शहर को नियंत्रण में ले लेती है. हिंसक भीड़ के मामले में कांग्रेस, बीजेपी, जेडीयू या सपा की सरकार एक ही होती है. भीड़ पर किसी कानून का ज़ोर नही चलता. वीडियो में लोग तोड़फोड़ कर रहे होते हैं, लेकिन कभी कोई कार्रवाई नहीं होती. मुझे नहीं पता, बेंगलुरू में तोड़फोड़ करने वाले लोगों को कावेरी विवाद की बारीकियों का कितना ज्ञान है या हरियाणा में जाट आरक्षण के दौरान हिंसा करने वालों को आरक्षण के कानून के बारे में ज़्यादा पता था या किस दुकान को लूटना है, उसके बारे में ज्यादा पता था.
हम हिंसक भीड़ के प्रति लगातार सहनशील होते चले जा रहे हैं. चुप रहकर उस भीड़ में शामिल होते जाते रहे हैं. हर दूसरे दिन ऐसी जानलेवा भीड़ अवतरित होती है और गायब हो जाती है. लोकतंत्र में बड़ी से बड़ी संख्या में प्रदर्शन करना चाहिए, लेकिन अगर इस तरह की हिंसक भीड़ के प्रति हम सहनशील होते रहे तो एक दिन अपने लोकतांत्रिक मसलों को गुंडों के हवाले कर देंगे.
सरकारों को हिंसक भीड़ से निपटने का नया आदर्श कायम करना होगा. पुलिस को भी भीड़ को हिंसा से उकसाने और हिंसा से पहले लाठीचार्ज से बचना चाहिए. हम पुलिस की हिंसा के प्रति भी सहज होते जा रहे हैं. यह भीड़ एक दिन हमारी व्यक्तिगत ताकत की संभावनाओं को समाप्त कर देती है. बेहतर लोकतंत्र वह होता है, जहां एक व्यक्ति सौ लोगों की भीड़ के बराबर होता है. उसके सामने खड़ा होकर अपनी बात कहता है. दोनों एक दूसरे की बात सुनते हैं और कहते हैं. हम मुद्दों के नाम पर गुंडों को अपने लोकतंत्र पर हावी होने दे रहे हैं. दंगाइयों की भीड़ और किसी मुद्दे को लेकर उतरी हुई भीड़ में कोई फर्क नहीं रह गया है.
कई बार सोचता हूं, अलग-अलग भीड़ में अलग-अलग लोग जाते हैं या एक ही आदमी हर तरह की हिंसक भीड़ में जाता है...? इन सारे लोगों को क्या अपराध बोध होता होगा...? हर राजनीतिक दल कब भीड़ में बदल जाए, पता नहीं. ऐसा लगता है, हमने अपनी आज़ादी की लड़ाई से कुछ नहीं सीखा. अहिंसक प्रदर्शन करने की परंपरा का विकास हमारे राजनीतिक दलों ने भी नहीं किया है. सबका रिकॉर्ड ख़राब है. क्या कभी किसी भीड़ की हिंसा का नतीजा निकला है...? सरकारों को भीड़ से लाभ होता है, इसलिए वह एक भीड़ को बचाती है तो एक भीड़ को डराती है. हर किसी के पास अपनी एक भीड़ है. भीड़ हिंसा न करे, इसका कोई उपाय किसी के पास नहीं है. हम सब भीड़ बनने, बनाने और उसे बचाने के अपराधी हैं.
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