इस जीवन में ज़िंदगी और ज़िंदगी मैं कौन हूँ

इस जीवन में ज़िंदगी जीने के अलावा भी बहुत कुछ है। यों ही जीवन जीने के अलावा भी इसमें बहुत कुछ होना चाहिए। जीवन का कोई ऊँचा हेतु होना चाहिए।जीवन का हेतु इस प्रश्न के सही जवाब तक पहुँचना है कि ' मैं कौन हूँ? ' यह प्रश्न कितने ही जन्मों से निरुत्तर है। ' मैं कौन हूँ ? ' की इस खोज में बाकी बची कड़ियाँ मिलती हैं।
मैं कौन हूँ?  मैं क्या नहीं हूँ? आत्मा क्या है ? क्या मेरा है? क्या मेरा नहीं है? बंधन क्या है ? मोक्ष क्या है ? क्या भगवान हैं?  भगवान क्या हैं? जगत कर्ता कौन है?क्या भगवान कर्ता हैं या नहीं? भगवान का सच्चा स्वरूप क्या है ? इस संसार के सच्चे कर्ता का स्वभाव क्या है? यह जगत कौन चलाता है? यह किस तरह से काम करता है ? माया का सच्चा स्वरूप क्या है? जो कुछ भी हम जानते हैं, वह सच है या भ्रांति? जो कुछ भी ज्ञान हमारे पास है, उससे क्या हमारी मुक्ति होगी या बंधन ही रहेगा?मुझे आज लोग भोला कहते हैं। भोला मेरा एक नाम हैं। लेकिन जब प्रसव हुआ तब मेरा कोई नाम नहीं था। लेकिन तब भी मेरा अस्तित्व था। मेरे घर वालों ने थोड़े ही दिनों के बाद मेरा नामकरण किया। उस वक्त अगर मेरे घर वालों  ने मेरा नाम भोला की जगह अगर मोला रखा होता तो आज लोग मुझे मोला कहतें। मैं न तो गर्भ में भोला था और ना ही मेरे ईस शरीर के नाश हो जाने के बाद भोला रहूँगा। यह तो केवल मेरे घर वालों ने निर्देष किया हुआ एक सांकेतिक नाम हैं। जो जब चाहे बदला जा सकता हैं। जो विवेकवान पुरुष इस रहष्य को समज लेता है की में एक नाम नहीं हूँ ,में अनामी हूँ। इस से वह इस नाम की निंदा से कभी भी सुखी या दुखी नहीं होता हैं। इस बात से यह सिध्ध  होता हैं की में एक नाम नहीं हूँ। शरीर एक जड हैं। मैं एक चेतन हूँ। शरीर क्षय , वृध्धि , उत्पत्ति  और विनाश के स्वभाव वाला हैं। मैं इन सब चीजों से सर्वदा परे हूँ। बचपन में मेरे शरीर का स्वरुप कुछ और था।  ऐसे ही युवावस्था और वृध्धावस्था में शरीर का स्वरुप कुछ अलग हैं। परन्तु इन तीनो अवस्थाओं को जाननेवाला में एक ही हूँ। इस लिए मैं यह शरीर नहीं हूँ। मैं शरीर का ज्ञाता हूँ।मैं इन्द्रिय भी नहीं हूँ। हाथ और पैर अगर कट जाए , आँखें नष्ट हो जाए , कान बेहरे हो जाते हैं , तब भी मैं जहाँ का तहां पूर्ववत् ही हूँ। मैं कभी मरता नहीं हूँ। अगर में इन्द्रिय होता तो उसके विनाश के साथ मेरा भी विनाश संभव होता। उसकी हानि के साथ मुझे भी हानि होती। इसलिए मैं जड इन्द्रिय नहीं हूँ , लेकिन इन्द्रियों का द्रष्टा या ज्ञाता हूँ। मैं भिन्न हूँ।मैं मन भी नहीं हूँ। नींद में मन रहेता नहीं हैं परन्तु मैं रहता हूँ। इस लिए नींद में से जगने के बाद मुझे इस बात का ज्ञान होता हैं की में शांति से सो रहा था। दूसरी द्रष्टि से भी मन के अनुपस्थित काल में मेरी जीवित सत्ता प्रसिध्ध हैं। मन विकारी हैं। मन में होते विकारो का मैं ज्ञाता हूँ। खान – पान – स्नान आदि के समय अगर मेरा ध्यान अगर दूसरी जगह पर रहा तो इन कामो में कोई न कोई भूल हो जाती हैं। फिर में सचेत हो कर कहता हूँ की मेरा मन किसी दूसरी जगह पर था इस लिए मुझसे गलती हो गयी। क्योंकि केवल शरीर और इन्द्रियों से मन के बिना सावधानी पूर्वक काम नहीं हो सकता। मन चंचल हैं पर मैं स्थिर हूँ। अचल हूँ। मन कहीं भी रहे , कुछ भी करता रहे मैं उसको जानता हूँ। इसलिए मैं मन का ज्ञाता हूँ। मन नहीं हूँ।मैं बुध्धि भी नहीं हूँ। क्योंकि बुध्धि भी क्षय-वृध्धि के स्वभाव वाली हैं। मैं क्षय-वृध्धि से सर्वथा परे हूँ। बुध्धि में मंदता , तीव्रता , पवित्रता , मलिनता , स्थिरता और अस्थिरता जैसे विकार होते हैं। परन्तु मैं इन सब से परे हूँ और सब स्थितिओं से वाकेफ हूँ। बुध्धि कब और कौन सा विचार कर रही हैं , क्या निर्णय कर रही हैं वह मैं जानता हूँ। बुध्धि द्रश्य हैं और मैं एक द्रष्टा हूँ। बुध्धि से मेरा पृथकत्व सिध्ध हैं। इस लिए में बुध्धि नहीं हूँइस तरह मैं नाम , शरीर , इन्द्रिय , मन और बुध्धि नहीं हूँ। इन सब से सर्वथा अतीत , पृथक , चेतन , द्रष्टा , साक्षी , सब का ज्ञाता , सत्य , नित्य , अविनाशी , अकारी , अविकारी , अक्रिय , अचल , सनातन , अमर और समस्त सुख – दुःख से रहित केवल शुध्ध आनंदमय आत्मा हूँ। मैं केवल आत्मा हूँ। यह ही मेरा सच्चा स्वरुप हैं।मनुष्य शरीर के बिना और कोई भी शरीर में इसकी प्राप्ति असंभव हैं। ईस स्थिति की प्राप्ति तत्व ज्ञान से होती हैं। और वह विवेक , वैराग्य , ईश्वर की भक्ति , सद्विचर , सदाचार आदि के सेवन से होती हैं। और इन सब लक्षणों का होना ईस घोर कलियुग में ईश्वर की दया के बिना असंभव हैं।

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